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क़तआत / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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6 मई
कुछ तीस बरस पास समुन्दर के रहा हूँ
आँखों ने बड़ी देर से सहरा नहीं देखा
41
सुकूँ पज़ीर नहीं हैं गड़े हुए मुर्दे
उखाड़िए न इन्हें, ये वबाल कर देंगे
42
उलझा ये जनेऊ तो सुलझता नहीं तुमसे
सुलझाओगे कैसे भला महबूब के गेसू
</poem>
SATISH SHUKLA
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