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|रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कौन सहे कैसे सहे सागर जैसी पीर।
आँखें पाथर हो गईं माटी हुआ शरीर।।
कागा छत पर बोलकर रोज जगाए आस।
अब तक तू लौटा नहीं टूट न जाए साँस।।
बैरी साजन उड़ चला छोड़ जगत का मोह।
मेरा सब कुछ लुट गया मुझको मिला बिछोह।।
पिया-पिया की टेर क्यों, पिया गया परदेस।
जाते-जाते दे गया मन को भारी ठेस।।
कितना गहरा प्रेम है किसने पाई थाह।
जिसने सीखा डूबना उसने पाई राह।।
पिया किनारे बैठकर लहरें रहा निहार।
सागर में उतरे बिना कौन लगा है पार।।
</poem>
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कौन सहे कैसे सहे सागर जैसी पीर।
आँखें पाथर हो गईं माटी हुआ शरीर।।
कागा छत पर बोलकर रोज जगाए आस।
अब तक तू लौटा नहीं टूट न जाए साँस।।
बैरी साजन उड़ चला छोड़ जगत का मोह।
मेरा सब कुछ लुट गया मुझको मिला बिछोह।।
पिया-पिया की टेर क्यों, पिया गया परदेस।
जाते-जाते दे गया मन को भारी ठेस।।
कितना गहरा प्रेम है किसने पाई थाह।
जिसने सीखा डूबना उसने पाई राह।।
पिया किनारे बैठकर लहरें रहा निहार।
सागर में उतरे बिना कौन लगा है पार।।
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