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मैं दासी द्रौपदी नार की / निहालचंद

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मैं दासी द्रौपदी नार की, हस्तिनापुर मेरा गाम,नाम सैरन्ध्री कह्या करैं ॥टेक॥
उनकै थी दासी कई हजार, पर था मेरे सुपुर्द घरबार,
कर जाणूँ कार सिंगार की और नहीं था काम,
चितर गुण-ओगुण लह्या करैं ।1।
है तृष्णा बड़ी चाळी दूती, करै एक पल मैं नाश नपूती
आई घड़ी कसूती हार की, जितग्या राज तमाम, शरीर पै दुख-सुख सह्या करैं ।2।
जग मैं बण्या रहो दीन ईमान, धर्म पै बेशक जाओ ज्यान,
मैं बेटी ख़ानदान परिवार की, नहीं लगै इलजाम, राँड गए घर की बह्या करैं ।3।
निहालचन्द कहैं बात इमानी, के मुश्किल सूँ मैं प्रानी,
राणी जिंदगानी दिन चार की, सुध लेंगे घनश्याम,
जो दुखिया पै दया करैं ।4।
</poem>
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