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अप्रेल फूल / शैल चतुर्वेदी

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मनाऊँगी, मनाऊँगी
ज़रूर-ज़रूर मनाऊँगी।
 
हम तुरुप से कटे नहले की तरह
खड़े-खड़े कांप रहे थे
अपना पौरुष नाप रहे थे
अपनी शक्ती जान गए
वर्षगांठ मनाने की बात
चुपचाप मान गए
तार दे दिया पूना
सलहज, सास और साले
जान-पहचान वाले
लगा गए चूना
पांच सौ का माल उड़ा गए
हाथी चवन्नी का
दस पैसे का सुग्गा
अठन्नी का डमरू
पांच पैसे का फुग्गा
तोहफ़े में पकड़ा गए
उम्मीद थी अंगूठी की
अंगूठा दिखा गए
हमारी उनका पारा ही चढ़ा गए
बोलीं-"भुक्खड़ हैं भुक्खड़
चने बेचते हैं
चने
ज़रा-सा मुंह छुआ
और दौड़ पड़े खाने
अरे, आदमी हो
तो एटीकेट जानें
अब हम भी उखड़ गए
आख़िर आदमी हैं
बिगड़ हए-
"कार्ड पप्पू ने छपवए थे
तुमने बंट्वाए थे।"
तभी मुन्ना हमारे हाथ का फ़ुग्गा ले गया
निमंत्रण-पत्र हाथों में दे गया
पढ़ते ही कार्ड
समझ में आ गई सारी बात
छपना चहिए था-"जन्म-दिवस है देवी का।"
मगर छप गया था-"बेबी का।"
दूसरे कमरे में
श्रीमती जी
पप्पू को पीट रहीं थीं
बेतहशा चीख़ रहीं थीं-
"स्कूल जाता है, स्कूल।"
बच्चे चिल्ला रहें थे-
"अप्रेल फूल, अप्रेल फूल।"
और चुन्नू डमरू बजाकर
मुन्नी को नचा रहा था
वर्षगांठ के लड्डू पचा रहा था।
 
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