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{{KKRachna
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
}}
<poem>
पानी
छूता है उसे
उसकी त्वचा के उजास को
उसके अंगों की प्रभा को –
पानी
ढलकता है उसकी
उपत्यकाओं शिखरों में से –
पानी
उसे घेरता है
चूमता है
पानी सकुचाता
लजाता
गरमाता है
पानी बावरा हो जाता है
पानी के मन में
उसके तन के
अनेक संस्मरण हैं।
(1987)
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
}}
<poem>
पानी
छूता है उसे
उसकी त्वचा के उजास को
उसके अंगों की प्रभा को –
पानी
ढलकता है उसकी
उपत्यकाओं शिखरों में से –
पानी
उसे घेरता है
चूमता है
पानी सकुचाता
लजाता
गरमाता है
पानी बावरा हो जाता है
पानी के मन में
उसके तन के
अनेक संस्मरण हैं।
(1987)
</poem>