भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
और कमरा इसी दुनिया में है
दिन भर चाबुक खाए घोड़े -सा
शाम ढले हैरान हूँ कि
अभी तक हूँ खाल सहित
चाबुक खाने वालों का
खुश ख़ुश हूँ
मेरी इस हिनहिनाहट में
बहुत लोग शामिल हैं।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits