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Kavita Kosh से
सह लूँ आज का दिन और
आने वाली रात का भय ज़्यादा है बीती रात से
सुना है तूफान तूफ़ान आज भी आएगा
सूरज आज भी लटकाया जाएगा कुछ पल
पश्चिम की चोटी पर
चाँद को उगते हुए कई घाव लगेंगे
सब दृश्य मुझे ही देखने पड़ेंगे नंगी आंखों आँखों
मातम होगा आज की रात भी
गीदड़ सहला रहे हैं गले
बरगद रोएगा अकेला
पागल मेहरू लहराएगा मुट्ठियाँ
नहीं सुनेगा कोई उसकी आपबीती आप-बीती
माथे फटेंगे मंदिर की सीढ़ियों पर
अंधा शौंकिया लाठी पटक-पटक कर