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चाय बागानों में / सरोज परमार

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|रचनाकार=सरोज परमार
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[[Category:कविता]]
<poem>

दूर-दूर तक
बिछी हरी चादर मख़मली
या
भूरे कैनवस पर ढेर-सा फैला हरा रंग
सचमुच हरितिमा की झील का प्रसार दृष्टि को छू गया.
रह-रह छोड़तीं कड़ियाँ
गीतों की
बुन्दियों से अनभीगी -सी
बीनती अढ़ाई पत्तियाँ
बीर- बहूटियाँ
भरती पेट किल्टों का.
पत्तियाँ नन्हों की उँगलियाँ
टहनियाँ नन्हों की पसलियाँ
उमग आती हैं छातियाँ
घर भर की तकलीफ़ें
बोरती हास-परिहास में.
ज़हरबाद के फोड़े-सा मुंशी
रह-रह मारता चाबुक
जुमलों के
हँसी पर लग जाता कर्फ़्यू
गुफ़्तगू हो जाती गुमसुम
हाथों की गति बढ़ जाती है
किल्टों की भूक घट जाती है
साँझ बेला को सूँघ कर
माप-तौल की कह -सुन कर
नमक ,तेल, भाजी गुनकर
गली-गली रेंग चलीं
बीर बहूटियाँ.
</poem>
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