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14:33, 2 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
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[[Category:कविता]]
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कहते, “रंजित करतीं जग को अमिता शरदेन्दु कलायें हैं।
पर लिये पीर त्यागतीं सदन जिसमें व्याकुल वनितायें हैं।
मधुरास पूर्णिमा रजनी का वह मोहक चन्द्र और ही है।
प्रिय-रमण-भवन प्रस्थान-रता वनिता-गति मन्द और ही है।
नित शयन-सदन में कभीं सुमुखि रूठे मत आँखों की पुतरी।
इस अनुनय में ही सधीं कोटि पिक-कंठ रागिनी राग-भरी”।
हो कहाँ स्वयम्भू कवि! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥145॥
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