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विरह के दो रंग / रंजना भाटिया
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13:46, 12 फ़रवरी 2009
कि
विरह का यह रंग
सिर्फ़ मेरे लिए
नही
नहीं
है ...
सही
-
ग़लत की उलझन में
बीता जीवन का मधुर पल,
टूटा न जाने कब कैसे
कसमों ,
जन्मो
जन्मों
का वह नाता
साथ है तो ..दोनों तरफ़
अब सिर्फ़ तन्हाई
जवाब दे
जिंदगी
ज़िंदगी
तू इतनी बेदर्द क्यों है ?..
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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