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|रचनाकार=नागार्जुन|संग्रह=
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[[Category:कविताएँ]][[Category:नागार्जुन]]{{KKCatNavgeet}}{{KKVID|v=9YQMteLywS4}}<Poempoem>अमल धवल गिरि के शिखरों पर,<br>बादल को घिरते देखा है।<br> छोटे-छोटे मोती जैसे<br>उसके शीतल तुहिन कणों को,<br>मानसरोवर के उन स्वर्णिम<br>कमलों पर गिरते देखा है,<br>बादल को घिरते देखा है।<br> तुंग हिमालय के कंधों पर<br>छोटी बड़ी कई झीलें हैं,<br>उनके श्यामल नील सलिल में<br>समतल देशों ले आ-आकर<br>पावस की उमस से आकुल<br>तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते<br>हंसों को तिरते देखा है।<br>
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग बगल रहकर ही जिनकोसारी रात बितानी होतीहोगी,निशा-काल निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदनक्रन्दन, फिर उनमेंउस महान् महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।<br>बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गया धनपति कुबेर वह?
कहाँ गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर<br>शत निर्झर-निर्झरणी-कलदुर्गम बर्फानी घाटी मुखरित देवदारु कानन में<br>,अलख नाभि शोणित-धवल-भोजपत्रों से उठने वाले<br>निज छायी हुई कुटी के ही उन्मादक परिमलभीतर,रंग-<br>बिरंगे और सुगंधितके पीछे धावित होफूलों से कुन्तल को साजे,इंद्रनील की माला डालेशंख-होकर<br>सरीखे सुघड़ गलों में,कानों में कुवलय लटकाए,शतदल लाल कमल वेणी में,तरलरजत-तरुण कस्तूरी मृग को<br>रचित मणि-खचित कलामयपान पात्र द्राक्षासव-पूरितरखे सामने अपने -अपनेलोहित चंदन की त्रिपदी पर चिढ़ते देखा है,<br>नरम निदाग बाल-कस्तूरीमृगछालों पर पलथी मारेमदिरारुण आखों वाले उनउन्मद किन्नर-किन्नरियों कीमृदुल मनोरम अँगुलियों कोवंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
'''1938''' कहाँ गय धनपति कुबेर वह<br>कहाँ गई उसकी वह अलका<br>नहीं ठिकाना कालिदास के<br>व्योम-प्रवाही गंगाजल का,<br>ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या<br>मेघदूत का पता कहीं पर,<br>कौन बताए वह छायामय<br>बरस पड़ा होगा न यहीं पर,<br>जाने दो वह कवि-कल्पित था,<br>मैंने तो भीषण जाड़ों में<br>नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,<br>महामेघ को झंझानिल से<br>गरज-गरज भिड़ते देखा है,<br>बादल को घिरते देखा है।<br> शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल<br>मुखरित देवदारु कनन में,<br>शोणित धवल भोज पत्रों से<br>छाई हुई कुटी के भीतर,<br>रंग-बिरंगे और सुगंधित<br>फूलों की कुंतल को साजे,<br>इंद्रनील की माला डाले<br>शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,<br>कानों में कुवलय लटकाए,<br>शतदल लाल कमल वेणी में,<br>रजत-रचित मणि खचित कलामय<br>पान पात्र द्राक्षासव पूरित<br>रखे सामने अपने-अपने<br>लोहित चंदन की त्रिपटी पर,<br>नरम निदाग बाल कस्तूरी<br>मृगछालों पर पलथी मारे<br>मदिरारुण आखों वाले उन<br>उन्मद किन्नर-किन्नरियों की<br>मृदुल मनोरम अँगुलियों को<br>वंशी पर फिरते देखा है।<br> बादल को घिरते देखा है।'''('युगधारा')'''
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