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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
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<poem>

नन्हीं बिटिया की तरह आयीं
कल स्वप्न में तुम

ममता से मैंने चूमे तुम्हारे कपोल
बालों पर हाथ फेरा
तुम सिमट आयीं बाहों में
आकाश से तारे तोड़ कर लाऊं
या सात समंदर पार से गुड़िया
या वन से झरे टेसू ला
रंग बनाऊं तुम्हारे लिये ?

पर तुमने तो कुछ भी नहीं मांगा,
न तारे, न चांद, न सोनचिरी
समझदार बिटिया की तरह
एक एक स्पर्श पर बड़ी होती गयीं
ममता से भर आया मेरा मन
प्यार के ये क्षण
स्वप्न में ठहर गये वसंत बन कर

कल तक
क्षितिज थामे इंद्रधनुष के नीचे
अल्हड़ युवती की तरह देखा था तुम्हें
आज तुम्हारा यह एक और रूप जाना
यह जाना कि
यों भावना बदलती जाती है एक संबंध मेम
एक संबंध फूल बन कर खिल उठता है भीतर
यों ही उतर आता है नीलाकाश
वसंत की धरती पर ।
</poem>
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