भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग -रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थर-थरा थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ "ज़िगर"
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये