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<Poem>
बढ़ती जा रही है बालों मे सफे़दी
कम होते जा रहे हैं आकर्षण
स्मृति से लुप्त होते जा रहे हैं
सहपाठियों के नाम और चेहरे
पीढ़ियाँ गुज़र गईं हमारीसंघर्ष भरे दिनसूत कातते-कपड़ा बुनते आज भी दहला देते हैं दिल घुमाते रहे हम शताब्दियों तक चरखापर नहीं घूम पायाहमारे जीवन का चरखापृथ्वी को लपेटने लायकभले ही बुन लिया हमने कपड़ापर ख़ुद के लिए हमें कभी नहीं हो सका नसीबचीथड़ों से ज़्यादा  हमारे ख़ून-पसीने की नमी पाकररूई बदल गई सूत मेंहमारे कौशल से सूत ने आकार लिया कपड़े का  हमीं ने बनाया रेशमहमीं ने बनायी ढाका की मलमलहमीं से सीखा गाँधी ने आज़ादी का मतलबफिर पूरे देश ने जानीबुनकर शायद अब न लड़ सकूँ पहले की अहमियत तरह
</poem>
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