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मैं चल तो दूँ
पर
माँ की तुलसीमाला
पिरोनी बची है
और
अनुमति तो ली ही नहीं - पिता से,
मैं चल तो दूँ
पर अपनी
इस अनिच्छा का क्या करूँ
दोस्त! मेरी कविता के पन्ने
उतने - भर में फैलने दो
हाथ बढा़कर नाप लूँ जितनी,
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