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धरती / कविता वाचक्नवी

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'''धरती'''

यह धरती
कितना बोएगी
अपने भीतर
बीज तुम्हारे
बिना खाद पानी रखाव के?
सिर पर सम्मुख
जलता सूरज
भभक रहा है
लपटों में घिर देह बचाती
पृथ्वी का हरियाला आँचल
झुलस गया है
चीत्कार पर नहीं करेगी
इसे विधाता ने रच डाला था
सहने को
भला-बुरा सब
खेल-खेल में अनायास ही,
केवल सब को
सब देने को।
</poem>