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10:49, 27 जुलाई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
|संग्रह=
}}[[Category:गज़ल]]
<poem>
मुक़ाम इक इन्तहाये-इश्क़ में ऐसा भी आता है।
ज़माने की नज़र अपनी नज़र मालूम होती है।
कोई उलफ़त का दीवाना, कोई मतलब का दीवाना।
यह दुनिया सिर्फ़ दीवानों का घर मालूम होती है॥
जो मुमकिन हो, जगह दिल में न दे दर्दे-मुहब्बत को।
घड़ी भर की ख़लिश फिर उम्र भर मालूम होती है॥