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{{KKRachna
|रचनाकार= जानकीवल्लभ शास्त्री
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सब अपनी-अपनी कहते हैं!
::कोई न किसी की सुनता है,::नाहक कोई सिर धुनता है,::दिल बहलाने को चल फिर कर,
फिर सब अपने में रहते हैं!
::सबके सिर पर है भार प्रचुर::सब का हारा बेचारा उर,::सब ऊपर ही ऊपर हंसतेहँसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!
::ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,::सबके पथ में है शिला, शिला,::ले जाती जिधर बहा धारा,
सब उसी ओर चुप बहते हैं।
</poem>