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मनुष्य-दो / सत्यपाल सहगल

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<poem>
किताबें लिखने नहीं आया था मैं दुनियाँ में
न ही लाईब्रेरियाँ बनाने
यद्यपि जानता हूँ लिखूँगा किताब
और अच्छी लगती हैं मुझे अच्छी किताबें
एक खोज को दे दिया गया था
इतिहास के किसी बनते क्षण में
यही खोजा मैंने
जब मैं थकान में से उबरा
जैसे जाल में गोताखोर

मनुष्य अथाह मनुष्यों के बीच मैं के मनुष्य
यह एक सुख था कि मनुष्य थे इतने
उनके बीच में मैं ऐसे था जैसे
पानी में गिरता सिक्का


आखिर मैं बादल बरसा तेज़ तेजम तेज
जल-थल हुआ सब
सड़क पर त्एज़-तेज जाता हुआ एक आदमी
बेतरह भीगा हुआ जाता एक आदमी
अपने घर
वह दुनिया का कोई एक मनुष्य था
जो गली का मोड़ मुड़ गया
</poem>
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