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पीठ पर पति / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>[जनसत्ता (23-10-1995) के फ्रंट पृष्ठ में छपे एक चित्रा 'जबलपुर,मध्य प्रदेश से आ रही दर्शनबाई अपने पति को पीठ पर उठाकर रविवार को कुरुक्षेत्र में ब्रह्म सरोवर पर सूर्य ग्रहण स्नान करने पहुँची' को देखकर]

पति को पीठ पर उठाया था उसने।

जबलपुर की दर्शंनबाई उसे
धर्मक्षेत्रा में स्नान के लिए लाई है
धड़ से नीचे शरीर नहीं है पति का
आधा आदमी है वह,आधे बाजू आधे शरीर वाला
सिर पूरा का पूरा सलामत है
तभी पीठ पर सवार है।

एक अँग या अँगवस्त्रा भी साबुत पति माना जाता है
(इसलिए कटार के साथ विवाह हो जाता था)
ग्रहण देखने आई दर्शनबाई को
ग्रहण लगा है
दर्शनबाई बिल्कुल नज़र नहीं आएगी कभी
वह डायमण्ड रिंग नहीं बनेगी,न कोरोना
ग्रसी रहेगी पूरी की पूरी
पुण्य कमाने आई
दर्शनबाई के लिए सदा सूर्य ग्रहण है।

उम्र भर पति को पीठ पर उठाए रखती हैं औरतें
पति, जिनकी सवारी है पत्नि
जैसे गणेश की चूहा
गणेश हाथी का सिर लिए सवार है चूहे पर
पत्नि की पीठ पर पति सवार रहता है हमेशा।
आज भी कम नहीं हुए शौकीन
जिनके लिए पत्नि उमदा सवारी है
कम नहीं हुए चटोरे
जिनके लिए पत्नि
मर्तबान में बन्द अचार की ख़ुश्बू है
कम नहीं हुए कोचवान
जो सवारी को संवार कर रखते हैं

दुनिया दूर तक पहुँची है
ग्रहण एक खेल है अब
फिर भी
एक ओर बिश्वसुंदरी आती ह्ऐ
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापन बेचती
दूसरी ओर दर्शनबाई है।
</poem>
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