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बोल मेरी मछली / अवतार एनगिल

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<poem>उस दिन
जब बारिश रुकी ही थी
गली की मिट्टी की नमकीन गंध
धूप की अंगुली थामे
हमें बुलाने आई थी
तब मैंने और भैया ने
मिलकर वही पंक्तियां गायी थी:
'हरा समुन्दर
गोपीचन्दर
बोल मेरी मछली
कितना पाणी
गिट्टे-गिट्टे पाणी'
उस उथले पानी में
छींटे उड़ाते हंसते-गाते
एक जोगिया तितली का पीछा करते
हम दोनों, भाई-बहन
पोखरे के पास ही
ढेर हो गये थे

तितली तो गई थी छिप कहीं
पर चितकबरा एक टिड्डा पकड़
उलटाकर
गुदगुदाया था हमने
और गोदा था तिनकों से
उसके गुलाबी पेट को
उसकी काली टांग को
बांधकर लाल ऊन से
खूब था नचाया
और था गाया :
'हरा समुन्दर
गोपीचन्दर
बोली मेरी मछली
कितना पाणी
ग़ोडे-गोडे पाणी।'

तब नहीं जानती थी मैं
अर्थ--रानी के घुटनों तक आने का
पर पानी घुटनों तक आया
भैया देर रात तक पढ़ाई करने लगे
मैंने भी
सिलाई-कढ़ाई से मुंह मोड़कर
रुकावट के कांच तोड़कर
कम्प्यूटर की कक्षा में दाखिला लिया

जब-जब मैं
भाभी से लड़ी
भैया से दूर बढ़ी,
वह कम बोलते
मैं कम बतियाती
पर एकांत में गुनगुनाती :
'हरा समुन्दर
गोपीचन्दर
बोल मेरी मछली
कितना पाणी
लक्क-लक्क पाणी।'

जब से पिता परदेस गये हैं
भैया व्यापार में
कुछ ज़्यादा खो गये हैं
कभी-कभी
लगता है
अब वह बेगाने हैं
कभी-कभी लगता है
बहुत सयाने हैं
भाभी का पल्लू थाम
सिनेमा जाते हैं
रात देर हुई घर आते हैं
किसी गीत की
कोई कड़ी गुनगुनाते हैं
औ' द्वार बन्द कर
नीला बल्ब जलाते हैं.....
तब मुझे लगता है
कि हरा समुन्दर बहुत पीछे छूट गया है
और पोखर के पत्थर पर
तितलियों वाला दर्पण
गिरकर टूट गया है

सपने अक्सर
मैं अपनी चप्पल नहीं ढूंढ पाती
फिर भी/कंधों पर उगे पंख फैला
उड़कर हूं जाती /औ' भैया को/उथले पानी में
अपने संग / छींटे उड़ाते, हूं पाती
फिर से बच्ची बन जाती/और गातीः
'हरा समुन्दर/गोपीचन्दर/बोल मेरी मछली
कितना पाणी
गल्ल-गल्लपाणी'।
सुबह झुटपुटे में ही
खुल जाये आंख तब लगता है
मैं भी हूं-- जल की मछली
फिर भी हूं----जल की मछली
फिर भी हूं----नगरपालिका नल की मछली
अभी-अभी आयेगा पानी
भरूंगी बाल्टियां/मलूंगी बर्तन
डरूंगी भाभी के माथे के बल से
चमकाऊंगी भतीजे को
बुहारूंगी उसका मैला
धोऊंगी फर्श
खाऊंगी झिड़कियां
खिलाऊंगी गुड्डू की गोद में
और गाऊंगी :
'हरा समुन्दर
गोपीचन्दर
बोल मेरी मछली
कितना पाणी ?
कितना पाणी ?
................
नक्को-नक्को पाणी
नक्को-नक्क पाणी ।'
</poem>
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