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{{KKRachna
|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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इक जाम-ए-बोसीदा हस्ती<ref>शरीर रूपी गली-सड़ी पोशाक</ref> और रूह अज़ल<ref>प्रारम्भ </ref> से सौदाई<ref>दीवानी</ref>।
यह तंग लिबास न यूँ चढ़ता ख़ुद फाड़ के हमने पहना है॥

हिचकी में जो उखड़ी साँस अपनी घबरा के पुकारी याद उसकी।
"फिर जोड़ ले यह टूटा रिश्ता इक झटका और भी सहना है"॥


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