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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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महमाँनवाज़, वादिये-गु़रबत की ख़ाक थी।
लाशा किसी ग़रीब का उरियाँ नहीं रहा॥

आँसू बना जबीं का अरक़ ज़ब्ते-अश्क़ से।
बदला भी ग़म ने भेस तो पिन्हाँ नहीं रहा॥

ज़बाँ का फ़र्क़ हक़ीक़त बदल नहीं सकता।
यह कोई बात नहीं, बुत कहा खुदा नहीं रहा॥

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