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अमर स्पर्श / सुमित्रानंदन पंत

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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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'''युगपथ नामक रचना से'''
<poem>खिल उठा हृदय,<br>पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!<br><br>
खुल गए साधना के बंधन,<br>संगीत बना, उर का रोदन,<br>अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,<br>सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।<br><br>
क्यों रहे न जीवन में सुख दुख<br>क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?<br>तुम रहो दृगों के जो सम्मुख<br>प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!<br><br>
तन में आएँ शैशव यौवन<br>मन में हों विरह मिलन के व्रण,<br>युग स्थितियों से प्रेरित जीवन<br>उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!<br><br>
जो नित्य अनित्य जगत का क्रम<br>वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,<br>हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,<br>जग से परिचय, तुमसे परिणय!<br><br>
तुम सुंदर से बन अति सुंदर<br>आओ अंतर में अंतरतर,<br>तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर<br>वरदान, पराजय हो निश्चय! <br><br/poem>
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