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गंगा / सुमित्रानंदन पंत

116 bytes removed, 19:13, 12 अक्टूबर 2009
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>अब आधा जल निश्चल, पीला, -<br>आधा जल चंचल औ', नीला -<br>गीले तन पर मृदु संध्यातप<br>सिमटा रेशम पट सा ढीला!<br><br>
.....................<br><br>
ऐसे सोने के साँझ प्रात,<br>ऐसे चाँदी के दिवस रात,<br>ले जाती बहा कहाँ गंगा<br>जीवन के युग-क्षण - किसे ज्ञात!<br><br>
विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,<br>किरणोज्ज्वल चल कल उर्मि निरत,<br>यमुना गोमती आदी से मिल<br>होती यह सागर में परिणत।<br><br>
यह भौगोलिक गंगा परिचित,<br>जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,<br>इस जड़ गंगा से मिली हुई<br>जन गंगा एक और जीवित!<br><br>
वह विष्णुपदी, शिवमौलि स्रुता,<br>वह भीष्म प्रसू औ' जह्न सुता,<br>वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,<br>वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।<br><br>
वह गंगा, यह केवल छाया,<br>वह लोक चेतना, यह माया,<br>वह आत्मवाहिनी ज्योति सरी,<br>यह भू पतिता, कंचुक काया।<br><br>
वह गंगा जन मन से नि:सृत,<br>जिसमें बहु बुदबुद युग निर्तित,<br>वह आज तरंगित संसृति के<br>मृत सैकत को करने प्लावित।<br><br>
दिशि दिशि का जन मन वाहित कर,<br>वह बनी अकूल अतल सागर,<br>भर देगी दिशि पल पुलिनों में<br>वह नव नव जीवन की मृदु उर्वर!<br><br>
........................<br><br>
अब नभ पर रेखा शशि शोभित<br>गंगा का जल श्यामल कम्पित,<br>लहरों पर चाँदी की किरणें<br>करती प्रकाशमय कुछ अंकित! <br><br/poem>
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