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21:52, 14 अक्टूबर 2009
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न जाने क्या सूझाचैन की एक साँसएक दिन लेने के लिए स्त्री अपने एकान्त कोखेल-खेल में भागती हुईभाषा में समा गईछिपकर बैठ गई।बुलाती है।
उस दिनतानाशाहों एकान्त कोछूती है स्त्रीनींद नहीं आई रात भर।संवाद करती है उससे।
उस दिनजीती हैखेल न सके कविगणअग्निपिण्ड के मानिंदतपते शब्दों से।पीती है उसको चुपचाप।
भाषा चुप रही सारी रात।एक दिनवह कुछ नहीं कहती अपने एकान्त सेकोई भी कोशिश नहीं करतीदुख बाँटने कीबस, सोचती है।
रुद्रवीणा परवह सोचती हैकोई प्रचण्ड राग बजता रहा।एकान्त मेंनतीजे तक पहुँचने से पहले हीकेवल बच्चेनिर्भीकगलियों में खेलते रहे।ख़तरनाक घोषित कर दी जाती है !
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