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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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सारे के सारे तुम्हारे रहस्य,
 
वे सब जो मुझको तुम बताती थीं अवश्य
 
मुझमें सुरक्षित हैं
 
-चपल चरण धरते हुए दौड़ कर जाना,
 
और सखियों से कह आना-
 
‘देखो, तुम मत आना,
 
आज रात परियाँ आयेंगी।–
 
घर के पीछे फुलवारी में…
 
मिलने को उनसे मन बहुत करे तो?
 
-तो चुपके से किसी एक झुरमुट में छिप जाना’ …
 
आज तुम नहीं हो, प-
 
परियों के आने की,
 
रात ढ्ले गाने की
 
जो कथा सुनाई थी तुमने,
 
वह भुला नहीं पाया हूं ।
 
तब जो केवल कौतुकमात्र जान पड़ती थीं-
 
उन्हीं, तुम्हारी परियों के घर मैं हो आया हूं ।
 
इसीलिये तो, ये-
 
सड़कों-चौराहों पर उड़ती-फिरती परियां,
 
रागभरी,रगभरी, मनमोहक किन्नरियां-
 
कितनी झूठी लगतीं ,कैसी जूठी लगतीं।
 
:बैंक के बड़े खाते, रुपये तिजोरी के,
 
नय-नये नोट,खनन खन-खन-खन ध्वनियाँ…
 
मेरा मन इनमें, बोलो, कैसे रमता ?
 
मुझको आकर्षित क्यों करें,
 
भाव तृष्णा के मुझमें क्यों भरे,
 
तुच्छ जान क्यों न पड़े ?
 
अरे, मेरे वैभव से इनकी कोई समता ?
 
:मिट्टी के गोलक में खनक रहे कुछ पैसे,
 
मोती रंगीन और पन्नी का ढेर ।
 
अलमारी के ऊपरवाले दो खानों में
 
ग्वालिनें, सिपाही, और गैया, औ, शेर ।
 
कितनी संपत्ति ॥
 
अरे, कितना ही अर्थ दे गई हो तुम ।
 
फिर भी, मैं कभी-कभी
 
राजपथों-महलों से कतराकर
 
टूटे-फूटे-कच्चे घरों औं’ घिरौंदों में
 
झाँक-झाँक आता हूँ ।
 
सूनी पगडंडी पर टकटकी लगाता हूँ, ।
 
खोजता, पुकारता, बुलाता हूँ ,गाता हूँ ।
 
एक इसी आशा से—
 
शायद तुम यहीं कहीं झुरमुट में छिपी हुई हो—
 
वापस आ जाओ ।
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