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युद्ध-विराम / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।
नहींअब भी ये रौंदे हुए खेत हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के सहमे हुए साक्षी हैं; अब भी ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें उन के अमानवी लोभ के कुण्ठित, अशमित प्रेत: अब भी हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में पहाड़ी खोहों में चट्टानों की ओट में वनैली ख़ूँख़ार आँखें घात में बैठी हैं: अब भी दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर जमे हैं गिद्ध प्रतीक्षा के बोझ से गरदनें झुकाए हुए। नहीं अभी कुछ नहीं बदला है। <br> <br>है: इस अनोखी रंगशाला में नाटक का अन्तराल मानों समय है सिनेमा का: कितनी रील? कितनी क़िस्तें? कितनी मोहलत?
अब भी कितनी देर <br>ये रौंदे हुए खेत <br>हमारी अवरूद्ध जिजिविषा जलते गाँवों की चिरायंध के <br>सहमे हुए साक्षी हैं; <br>अब भी बदले <br>ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें <br>उन तम्बाकू के अमानवी लोभ के <br>धुएँ का सहारा? कुण्ठित, अशमित प्रेत: <br>कितनी देर अब भी <br>हमारे देवदारुचाय और वाह-वनों वाही की छाँहों में <br> पहाड़ी खोहों चिकनी सहलाहट में <br>चट्टानों की ओट में <br>वनैली ख़ूँख़ार आँखें <br>घात में बैठी हैं: <br>अब भी <br>दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर <br>जमे हैं गिद्ध <br>प्रतीक्षा के बोझ से <br>गरदनें झुकाए हुए। <br>नहीं अभी कुछ नहीं बदला है: <br>इस अनोखी रंगशाला में <br>नाटक का अन्तराल मानों <br>समय है सिनेमा का: <br>कितनी रील? <br>कितनी क़िस्तें? <br>कितनी मोहलतरुकेगा कारवाँ हमारा? <br> <br>
कितनी देर <br>नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: जलते गाँवों हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल केवल परदा हैं— विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं: सिंचाई की चिरायंध नहरों के बदले <br>टूटे हुए कगारों पर तम्बाकू बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं: भूख को मिटाने के धुएँ मानवी दायित्व का सहारा? <br>स्वीकार नहीं, कितनी देर <br>चाय और वाह-वाही मिटाने की <br>भूख की लोलुप फुफकार ही चिकनी सहलाहट में <br>रुकेगा कारवाँ हमारा? <br> <br>उन के पार है।
नहीं, बन्दूक़ के कुन्दे से हल के हत्थे की छुअन हमें अभी कुछ नहीं बदला है: <br>भी अधिक चिकनी लगती, हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल <br>संगीन की धार से केवल परदा हैं— <br>हल के फाल की चमक विराम अब भी अधिक शीतल, और हम मान लेते कि उधर भी मानव मानव था और है, पर वहाँ राम नहीं उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं: <br>, सिंचाई उधर भी मेहनत की नहरों के टूटे हुए कगारों पर <br>सूखी रोटी की बरकत बाँस लूट की टट्टियाँ धोखे की हैं: <br>बोटियों से अधिक है— भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार पर अभी कुछ नहीं, <br>बदला है मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही <br>क्योंकि उधर का निज़ाम उन अभी उधर के पार है। <br><br>किसान को नहीं देता आज़ादी आत्मनिर्णय आराम ईमानदारी का अधिकार!
बन्दूक़ के कुन्दे से <br>हल के हत्थे की छुअन <br>हमें अभी भी अधिक चिकनी लगतीनहीं, <br>अभी कुछ नहीं बदला है: संगीन की धार से <br>हल के फाल की चमक <br>कुछ नहीं रुका है। अब भी अधिक शीतल, <br>हमारी धरती पर और हम मान लेते कि उधर भी <br>मानव मानव था और है, <br>उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं, <br> उधर अब भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत <br>हमारे आकाश पर लूट धुएँ की बोटियों से अधिक है— <br>रेखाएँ अन्धी पर चुनौती लिख जाती हैं: <br>अभी कुछ नहीं बदला है <br>चुका है। क्योंकि उधर देश के जन-जन का निज़ाम <br> अभी उधर के किसान को <br>यह स्नेह और विश्वास नहीं देता <br>जो हमें बताता है आज़ादी <br>कि हम भारत के लाल हैं— आत्मनिर्णय <br>वही हमें यह भी याद दिलाता है आराम <br>कि हमीं इस पुण्य-भू के ईमानदारी का अधिकार! <br> <br>क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं।
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: <br>कुछ नहीं रुका है। <br>अब भी हमारी धरती पर <br>बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं, <br>अब भी हमारे आकाश पर <br>धुएँ की रेखाएँ अन्धी <br>चुनौती लिख जाती हैं: <br>अभी कुछ नहीं चुका है। <br>देश के जन-जन का <br>यह स्नेह और विश्वास <br>जो हमें बताता है <br>कि हम भारत के लाल हैं— <br>वही हमें यह भी याद दिलाता है <br>कि हमीं इस पुण्य-भू के <br>क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं। <br> <br> हमें बल दो, देशवासियों, <br> क्योंकि तुम बल हो: <br> तेज दो, जो तेजस् हो, <br> ओज दो, जो ओजस् हो, <br> क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो <br> हमें ज्योति दो, देशवासियों, <br> हमें कर्म-कौशल दो: <br> क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है, <br>
अभी कुछ नहीं बदला है...
 
 
<span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span>
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