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घनाह्लाद / सियाराम शरण गुप्त

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{{KKCatKavita‎}}<poem>पावस का यह घनघटापुंज
कर स्निग्ध धरा का नव निकुंज
बरसा बरसा कर सुरसधार
करता है नभतल में विहार।

भरकर नव मौक्तिकबिन्दु माल
वसुधा का यह अंचल विशाल
आनंद विकम्पित है अधीर;
क्रीड़ारत है सुरभित समीर।

नव-सूर्य-करोज्ज्वल, रजतगात,
झरझर कर यह निर्झर प्रपात
कर उथलित प्रचुर प्रमोदपान
करता है कलकल-कलित गान।

रह रह कर यह पिक बार-बार
कर रहा मधुरिमा का प्रसार
है हरित धरा का हेमगात्र
भर ओतप्रोत प्रमोदपात्र।

उस प्रमद पात्र का सुरस धन्य
है छलक रहा अनुपम अन्य।
पर इस उर में यह घनाह्लाद
धारण कर लेता है विषाद।
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