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उलझन / महादेवी वर्मा

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:::जिसमें उनकी छाया भी,
:::मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ।
वे चुपके से मानस में,आ छिपते उच्छवासें बन;जिसमें उनको सांसो में,देखूँ पर रोक न पाऊँ।:::वे स्मृति बनकर मानस में,:::खटका करते हैं निशिदिन;:::उनकी इस निष्ठुरता को,:::जिसमें मैं भूल न जाऊँ।
</poem>
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