|रचनाकार=उर्मिलेश
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उसकी चूड़ी, उसकी बेंदी, उसकी चुनर से अलग।
मैं सफर में भी न हो पाया कभी घर से अलग।
गो कि मेरी ‘पास-बुक’ से भी बड़े थे उनके ख्वाब
फिर भी उसने पाँव फैलाये न चादर से अलग।
मुझसे वो अक्सर लड़ा करती है, मतलब साफ है
वो न भीतर से अलग है, वो न बाहर से अलग।
पत्रिकायें उसके पढ़ने की मैं लाया था कई
फिर भी उसने कुछ न देखा मेरे स्वेटर से अलग।
सोच में उसके भरी हैं मेरी लापरवाहियाँ
यों वो सोने जा रही हैं मेरे बिस्तर से अलग।
उम्र ढलते ही बनेगा कौन मेरा आइना
हो न पाया मैं कभी उससे इसी डर से अलग।
दोस्तों, हर प्रश्न का उत्तर तुम्हें मिल जायेगा
सोचना कुछ देर घर को अपने दफ्तर से अलग।
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