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|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
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{{KKCatKavita}}{{KKCatGeet}}<poem>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br>आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,<br>किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!<br>जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
आयेगा मधुमास फिर भी, आयेगी श्यामल घटा घिर,<br>आँख भर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर!<br>प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे रहेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
अब न रोना, व्यर्थ होगा, हर घड़ी आँसू बहाना,<br>आज से अपने वियोगी, हृदय को हँसना सिखाना,<br>अब न हँसने के लिये, हम तुम मिलेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे<br>दूर होंगे पर सदा को, ज्यों नदी के दो किनारे<br>सिन्धुतट पर भी न दो जो मिल सकेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
तट नदी के, भग्न उर के, दो विभागों के सदृश हैं,<br>चीर जिनको, विश्व की गति बह रही है, वे विवश है!<br>आज अथइति पर न पथ में, मिल सकेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
यदि मुझे उस पार का भी मिलन का विश्वास होता,<br>सच कहूँगा, न मैं असहाय या निरुपाय होता,<br>किन्तु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेंगे?<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
आज तक हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा?<br>कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्यरेखा?<br>अब कहाँ सम्भव कि हम फिर मिल सकेंगे!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
आह! अन्तिम रात वह, बैठी रहीं तुम पास मेरे,<br>शीश कांधे पर धरे, घन कुन्तलों से गात घेरे,<br>क्षीण स्वर में कहा था, "अब कब मिलेंगे?"<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?<br><br>
"कब मिलेंगे", पूछ्ता मैं, विश्व से जब विरह कातर,<br>"कब मिलेंगे", गूँजते प्रतिध्वनिनिनादित व्योम सागर,<br>"कब मिलेंगे", प्रश्न उत्तर "कब मिलेंगे"!<br>आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? <br><br/poem>
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