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आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ १

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|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद
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{{KKCatKavita}}<poem>इस करुणा कलित हृदय में<br />अब विकल रागिनी बजती<br />क्यों हाहाकार स्वरों में<br />वेदना असीम गरजती?<br /><br /> मानस सागर के तट पर<br />क्यों लोल लहर की घातें<br />कल कल ध्वनि से हैं कहती<br />कुछ विस्मृत बीती बातें?<br /><br /> आती हैं शून्य क्षितिज से <br /> क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी<br />टकराती बिलखाती-सी<br />पगली-सी देती फेरी?<br /><br /> क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी<br />छिटका कर दोनों छोरें<br />चेतना तरंगिनी मेरी<br />लेती हैं मृदल हिलोरें?<br /><br /> बस गयी एक बस्ती हैं<br />स्मृतियों की इसी हृदय में<br />नक्षत्र लोक फैला है<br />जैसे इस नील निलय में।<br /><br /> ये सब स्फुलिंग हैं मेरी<br />इस ज्वालामयी जलन के<br />कुछ शेष चिह्न हैं केवल<br />मेरे उस महा मिलन के।<br /><br /> शीतल ज्वाला जलती हैं<br />ईधन होता दृग जल का<br />यह व्यर्थ साँस चल-चल कर<br />करती हैं काम अनिल का।<br /><br /> बाड़व ज्वाला सोती थी<br />इस प्रणय सिन्धु के तल में<br />प्यासी मछली-सी आँखें<br />थी विकल रूप के जल में।<br /><br /> बुलबुले सिन्धु के फूटे<br />नक्षत्र मालिका टूटी<br />नभ मुक्त कुन्तला धरणी<br />दिखलाई देती लूटी।<br /><br /> छिल-छिल कर छाले फोड़े<br />मल-मल कर मृदुल चरण से<br />धुल-धुल कर बह रह जाते <br /> आँसू करुणा के कण से।<br /><br /> इस विकल वेदना को ले<br />किसने सुख को ललकारा <br /> वह एक अबोध अकिंचन<br />बेसुध चैतन्य हमारा।<br /><br /> अभिलाषाओं की करवट<br />फिर सुप्त व्यथा का जगना<br />सुख का सपना हो जाना<br />भींगी पलकों का लगना।<br /><br /> इस हृदय कमल का घिरना<br />अलि अलकों की उलझन में<br />आँसू मरन्द का गिरना<br />मिलना निश्वास पवन में।<br /><br /> मादक थी मोहमयी थी<br />मन बहलाने की क्रीड़ा<br />अब हृदय हिला देती है<br />वह मधुर प्रेम की पीड़ा।<br /><br /> सुख आहत शान्त उमंगें<br />बेगार साँस ढोने में<br />यह हृदय समाधि बना हैं<br />रोती करुणा कोने में।<br /><br /> चातक की चकित पुकारें<br />श्यामा ध्वनि सरल रसीली<br />मेरी करुणार्द्र कथा की<br />टुकड़ी आँसू से गीली।<br /><br /> अवकाश भला हैं किसको,<br />सुनने को करुण कथाएँ<br />बेसुध जो अपने सुख से<br />जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ<br /><br /> जीवन की जटिल समस्या <br /> हैं बढ़ी जटा-सी कैसी<br />उड़ती हैं धूल हृदय में<br />किसकी विभूति हैं ऐसी?<br /><br /> जो घनीभूत पीड़ा थी<br />मस्तक में स्मृति-सी छायी<br />दुर्दिन में आँसू बनकर<br />वह आज बरसने आयी।<br /><br /> मेरे क्रन्दन में बजती<br />क्या वीणा, जो सुनते हो<br />धागों से इन आँसू के<br />निज करुणापट बुनते हो।<br /><br /> रो-रोकर सिसक-सिसक कर<br />कहता मैं करुण कहानी<br />तुम सुमन नोचते सुनते<br />करते जानी अनजानी।<br /><br /> मैं बल खाता जाता था<br />मोहित बेसुध बलिहारी<br />अन्तर के तार खिंचे थे<br />तीखी थी तान हमारी<br /><br /> झंझा झकोर गर्जन था<br />बिजली थी सी नीरदमाला,<br />पाकर इस शून्य हृदय को<br />सबने आ डेरा डाला।<br /><br /> घिर जाती प्रलय घटाएँ<br />कुटिया पर आकर मेरी<br />तम चूर्ण बरस जाता था<br />छा जाती अधिक अँधेरी।<br /><br /> बिजली माला पहने फिर<br />मुसक्याता था आँगन में<br />हाँ, कौन बरस जाता था<br />रस बूँद हमारे मन में?<br /><br /> तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!<br />मेरे इस मिथ्या जग के<br />थे केवल जीवन संगी<br />कल्याण कलित इस मग के।<br /><br /> कितनी निर्जन रजनी में<br />तारों के दीप जलाये<br />स्वर्गंगा की धारा में<br />उज्जवल उपहार चढायें।<br /><br /> गौरव था , नीचे आये<br />प्रियतम मिलने को मेरे<br />मै इठला उठा अकिंचन<br />देखे ज्यों स्वप्न सवेरे।<br /><br /> मधु राका मुसक्याती थी<br />पहले देखा जब तुमको<br />परिचित से जाने कब के<br />तुम लगे उसी क्षण हमको।<br /><br /> परिचय राका जलनिधि का<br />जैसे होता हिमकर से<br />ऊपर से किरणें आती<br />मिलती हैं गले लहर से।<br /><br /> मै अपलक इन नयनों से<br />निरखा करता उस छवि को<br />प्रतिभा डाली भर लाता<br />कर देता दान सुकवि को।<br /><br /> निर्झर-सा झिर झिर करता<br />माधवी कुंज छाया में<br />चेतना बही जाती थी<br />हो मन्त्र मुग्ध माया में।<br /><br /> पतझड़ था, झाड़ खड़े थे<br />सूखी-सी फूलवारी में<br />किसलय नव कुसुम बिछा कर<br />आये तुम इस क्यारी में।<br /><br /> शशि मुख पर घूँघट डाले<br />अंचल में चपल चमक-सी<br />आँखों मे काली पुतली <br /> पुतली में श्याम झलक-सी।<br /><br /poem>
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