:::(८१)
पूजा का यह कनक - दीप
::खँडहर में आन जलाया क्यों?
रेगिस्तान हृदय था मेरा,
::पाटल - कुसुम खिलाया क्यों?
मैं अन्तिम सुख खोज रहा था
::तप्त बालुओं में गिरकर।
बुला रहा था सर्वनाश को
::यह पीयूष पिलाया क्यों?
:::(८२)
तुझे ज्ञात जिसके हित इतना
::मचा रही कल - रोर, सखी!
खड़ा पान्थ वह उस पथ पर
::जाता जो मरघट ओर, सखी!
यह विस्मय! जंजीर तोड़
::कल था जिसने वैराग्य लिया,
आज उसी के लिए हुआ
::फूलों का पाश कठोर, सखी!
:::(८३)
बोल, दाह की कोयल मेरी,
::बोल दहकती डारों पर,
अर्द्ध-दग्ध तरु की फुनगी पर,
::निर्जल-सरित-कगारों पर।
अमृत - मन्त्र का पाठ कभी
::मायाविनि! मृषा नहीं होता,
उगी जा रहीं नई कोंपलें
::तेरी मधुर पुकारों पर।
:::(८४)
दृग में सरल ज्योति पावन,
::वाणी में अमृत-सरस क्या है?
ताप-बिमोचन कुछ अमोघ
::गुणमय यह मधुर परस क्या है?
धूलि-रचित प्रतिमे! तुम भी तो
::मर्त्यलोक की एक कली,
ढूँढ़ रहा फिर यहाँ विरम
::मेरा मन चकित, विवश क्या है?
:::(८५)
चिर-जाग्रत वह शिखा, जला तू
::गई जिसे मंगल-क्षण में;
नहीं भूलती कभी, कौंध
::जो विद्युत समा गई घन में।
बल समेट यदि कभी देवता
::के चरणों में ध्यान लगा;
चिकुर - जाल से घिरा चन्द्रमुख
::सहसा घूम गया मन में।
:::(८६)
अमित बार देखी है मैंने
::
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