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:चमक रही जो लपट चतुर्दिक,
:अंचल लाल भवानी का है।
:खोल रहे जो भाव वह्निमय,
:ये हैं आशीर्वाद उसीके,
:’जय भारत’ के तुमुल रोर में
:गुँजित संगर-नाद उसीके।
दिल्ली के नीचे मर्दित अभिमान नहीं केवल है,
दबा हुआ शत-लक्ष नरों का अन्न-वस्त्र, धन-बल है।
दबी हुई इसके नीचे भारत की लाल भवानी,
जो तोड़े यह दुर्ग, वही है समता का अभियानी।
'''रचनाकाल: १९४५'''
</poem>
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