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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=48>सप्ताह की कविता</font></td><td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''मध्य निशा का गीतपगली - गोद भर गई है जिसकी पर मांग अभी तक खाली है<br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[नरेन्द्र शर्माजगदीश तपिश]]</td>
</tr>
</table>
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
तुम उसे उर ऊपर वाले तेरी दुनिया कितनी अजब निराली हैकोई समेट नहीं पाता है किसी का दामन खाली हैएक कहानी तुम्हें सुनाऊँ एक किस्मत की हेठी कान ये किस्सा धन दौलत का न ये किस्सा रोटी कासाधारण से लगा स्वर साधतींघर में जन्मी लाड़ प्यार में पली बढ़ी थीअभी-अभी दहलीज पे आ के यौवन की वो खड़ी हुई थीवो कालेज में पढ़ने जाती थी कुछ-कुछ सकुचाई सीकुछ इठलाती कुछ बल खाती और कुछ-कुछ शरमाई सीप्रेम जाल में फँस के एक दिन वो लड़की पामाल हो गईलूट लिया सब कुछ प्रेमी ने आखिर में कंगाल हो गईपहले प्रेमी ने ठुकराया फिर घर वाले भी रूठ गएवो लड़की पागल-सी हो गई सारे रिश्ते टूट गए
उठते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!अभी-अभी वो पागल लड़की नए शहर में आई हैउसका साथी कोई नहीं है बस केवल परछाई हैउलझ- उलझे बाल हैं उसके सूरत अजब निराली-सीपर दिखने में लगती है बिलकुल भोली-भाली-सीझाडू लिए हाथ में अपने सड़कें रोज बुहारा करतीहर आने जाने वाले को हँसते हुए निहारा करतीकभी ज़ोर से रोने लगती कभी गीत वो गाती हैकभी ज़ोर से हँसने लगती और कभी चिल्लाती हैकपड़े फटे हुए हैं उसके जिनसे यौवन झाँक रहा हैकेवल एक साड़ी का टुकड़ा खुले बदन को ढाँक रहा है
मूक होती कथा मेरी,भूख की मारी वो बेचारी एक होटल पर खड़ी हुई है शून्य होती व्यथा आखिर कोई तो कुछ देगा इसी बात पे अड़ी हुई हैगली-मोहल्ले में वो भटकी चौखट-चौखट पर चिल्लाईलेकिन उसके मन की पीड़ा कहीं किसी को रास न आईउसको रोटी नहीं मिली है कूड़ेदान में खोज रही हैकैसे उसकी भूख मिटेगी मेरी,कलम भी सोच रही हैदिल कहता है कल पूछूंगा किस माँ-बाप की बेटी हैजाने कब से सोई नहीं है जाने कब से भूखी हैज़ुर्म बताओ पहले उसका जिसकी सज़ा वो झेल रही है चीर निशिगर्मी-निस्तब्धता जो,सर्दी और बारिश में तूफानों से खेल रही है
तीर-से आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला शहर के बाहर पेड़ के!नीचे उसका रैन बसेरा हैवही रात कटती है उसकी होता वही सवेरा है चाँद भी पिछले पहर का,रात गए उसकी चीखों ने सन्नाटे को तोड़ा है मुग्ध हो जाता, ठहराता!जाने कब तक कुछ गुंडों ने उसका ज़िस्म निचोड़ा है क्या विदा-बेला न टलतीपुलिस तलाश रही है उनको जिनने ये कुकर्म किया हैआज चिकित्सालय में उसने एक बच्चे को जन्म दिया हैयदि कहीं आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?कहते हैं तू कण-कण में है तुझको तो सब कुछ दिखता है  बनी रहती चाँदनी हे ईश्वर क्या तू नारी की ऐसी भीक़िस्मत लिखता है गगन उस पगली की हीरक-कनी भीक़िस्मत तूने ये कैसी लिख डाली है ओस बन आती अवनि गोद भर गई है उसकी पर चाँदनी, सुनकर सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?  रुद्ध प्राणों को रुलाते, आज बाहर खींच लाते निमिष में अंगार उर-सा सूर्य, यदि आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?मांग अभी तक खाली है
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