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|संग्रह=समर्पण / माखनलाल चतुर्वेदी
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मन, मन की न कहीं साख गिर जाये,
:::वह तेरे द्वार धूनियाँ रमाने में मगन है।
'''रचनाकाल: खण्डवा-१९४५'''
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