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पिता / मुकेश जैन

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'''पिता '''
पिता, वह पुरानी टूटी<br>कुर्सी, बैंच और<br>पंखा जो आवाज करता था जिन्हें<br>तुमने<br>मूल्यवान बनाये रखा था आज तक<br>
बे-जान हो गये हैं तुम्हारे बिना.
वे हस्तलिखित शास्त्र जो<br>तुमने पढ़े थे, बाट<br>जोह रहे हैं, किसी की<br>जो उन्हें छुए / पढ़े<br>उनकी अनुभूति ग्रहण<br>
करे.
पिता, अब एसी है, सौफे<br>हैं<br>कंप्युटर<br>जिसमें हम<br>
फ़िल्म देखते हैं.
'''रचनाकाल ''' : २४/१०/२००९ (पिता की मृत्यु पर)
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