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पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ९
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17:47, 28 जनवरी 2010
:अपने लिए रुक्ष हो तुम क्यों, होकर भी भ्रातृ-स्नेही?
आज उर्मिला की चिन्ता यदि, तुम्हें चित्त में होती है,
:कि "वह विरहिणी
बैठे
बैठी
मेरे, लिये निरन्तर रोती है।"
"तो मैं कहती हूँ, वह मेरी बहिन न देगी तुमको दोष,
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