सबने मृदु मारुत का दारुण, झंझा नर्तन देखा था,
:सन्ध्या के उपरान्त तमी का, विकृतावर्तन देखा था!
काल-कीट-कृत वयस-कुसुम-का, क्रम से कर्तन देखा था!:किन्तु किसी ने अकस्मात् कब, यह परिवर्तन देखा था! गोल कपोल पलटकर सहसा, बने भिड़ों के छत्तों-से,:हिलने लगे उष्ण साँसों में, ओंठ लपालप-लत्तों से!कुन्दकली-से दाँत हो गये, बढ़ बारह की डाढ़ों से,:विकृत, भयानक और रौद्र रस, प्रगटे पूरी बाढों-से? जहाँ लाल साड़ी थी तनु में, बना चर्म का चीर वहाँ,:हुए अस्थियों के आभूषण, थे मणिमुक्ता-हीर जहाँ!कन्धों पर के बड़े बाल वे, बने अहो! आँतों के जाल,:फूलों की वह वरमाला भी, हुई मुण्डमाला सुविशाल! हो सकते थे दो द्रुमाद्रि ही, उसके दीर्घ शरीर-सखा;:देख नखों को ही जँचती थी, वह विलक्षणी शूर्पणखा!भय-विस्मय से उसे जानकी, देख न तो हिल-डोल सकीं,:और न जड़ प्रतिमा-सी वे कुछ, रुद्र कण्ठ से बोल सकीं॥ अग्रज और अनुज दोनों ने, तनिक परस्पर अवलोका,:प्रभु ने फिर सीता को रोका, लक्ष्मण ने उसको टोका।सीता सँभल गई जो देखी, रामचन्द्र की मृदु मुस्कान,:शूर्पणखा से बोले लक्ष्मण, सावधान कर उसे सुजान-
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