भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
नया पृष्ठ: उसके अपने कभी अपने नही हुए अधूरे सपनों को गले लगाकर बैठा यह मोहन…

उसके अपने कभी अपने नही हुए

अधूरे सपनों को गले लगाकर

बैठा यह मोहन ठकुरी

गमले के कैकटस जैसा

न फूल सकता है, न फैल सकता है!

उसकी हँसी कृत्रिम है

अव्यक्त व्यथा-वेदनाओं में लिपटकर

बैठा यह मोहन ठकुरी

किसी के मन में माया बनकर रह नही सकता

किसी की आँखों में आँसू बनकर छलक नही सकता !

(अनुवाद : स्वयं )