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09:15, 27 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
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<poem>
पीरी परी देह छीनी, राजत सनेह भीनी,
:कीनी है अनंग अंग-अंग रंग बोरी सी ।
नैन पिचकारी ज्यों चल्यौई करै रैन-दिन,
:बगराए बारन फिरत झकझोरी सी ॥
कहाँ लौं बखानों ’घनआनँद’ दुहेली दसा,
:फाग मयी भी जान प्यारी वह भोरी सी ।
तिहारे निहारे बिन, प्रानन करत होरा,
:विरह अँगारन मगरि हिय होरी सी ॥
</poem>