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09:20, 27 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
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<poem>
कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै,
:आँसू नदी नैनन उमँगिऐ रहति है ।
कहाँ ऐसी राँचनि हरद-केसू-केसर में,
:जैसी पियराई गात पगिए रहति है ॥
चाँचरि-चौपहि हू तौ औसर ही माचति, पै-
:चिंता की चहल चित्त लगिऐ रहति है ।
तपनि बुझे बिन ’आनँदघन’ जान बिन,
:होरी सी हमारे हिए लगिऐ रहति है ॥
</poem>