भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
विषण्ण रहता हूँ इन दिनों।
मीना बाज़ार में
कटी जेब लेकरभटकने का दर्दमुझे चीरता है।मैं जादूगर की पेटी में बंदगुड्डे की तरहआरों से बार-बार चिर कर भीसाबुत बच जाता हूँ।मुझे बाहरी चोट नहीं पहुँचती,मगर भीतर घाव गहरा है।
</poem>