गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
नेमु ब्रत संजम के आसन अखंड लाइ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
4 bytes added
,
10:58, 25 मार्च 2010
::धूरि हूँ दरैंगी जऊ अंग छिलि जाइगौ ॥
पांच आंच हूँ की झार झेलिहैं निहारि जाहि
::
रावरौ हू कठिन करेजौ हिलि जाइगौ ।
सहिहैं तिहारे कहैं सांसति सबै पै बस
::
एती कहि देहु कै कन्हैया मिलि जाइगौ ॥61॥
</poem>
Himanshu
916
edits