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Kavita Kosh से
रोज़ सुबह ताका करती है
स्कूल जा रहे बच्चों को
याद किया करती है उनमें अपने बच्चे
चले गए जो पेट की खातिर ख़ातिर दूर -दूर तक
गाढ़ी झिल्ली छाई रेटिना के ऊपर
दिखना उसका खत्म ख़त्म हो रहा धीरे -धीरे
रह-रहकर दबवाती तलवे
चलते-चलते रुक जाती है
जगह-जगह पर
पर चलती जाती, चलती जाती
कहीं पहुँचने.......
या आने वाले कल की बातें
कुछ सुख की, कुछ दुःख की बातें
रोज़ देर से सोती मां माँ जगती है जल्दी
और जागकर देखा करती उन सपनों को
देख नहीं पाती है जिनको गहरी नींद में
सहेज रही है बिखरे अपने सारे सपने
बचपन को जीने की फिर से
हुआ करते हैं जिसमें
शेखचिल्ली और कोरिया जैसे पात्र
करते हैं जो मेहनत दुनियाभर की
कहे जाते हैं पर सरेआम बेवकूफ बेवकूफ़ फिर भी
घर का पूरा काम
मशगूल रहती है सुबह-शाम
भरते हुए
शेखचिल्ली और कोरिया जैसों के सत्व को अपने अंदर
पाने के लिए अपने हक को
मेहनत के बल पर
उसे नाज़ है
अपने उस होने का
उस न होने को, जो वो नहीं हो पाई
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