भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
{{KKCatKavita}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
क्या मेरी आत्मा का चिर -धन ? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन ! :प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, :तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, :सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; ::निज सुख से ही चिर चंचल -मन, ::मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन। मैं प्रेम प्रेमी उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
</poem>