भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
:नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त
वह रे अनन्त का मुक्त-मीन अपने असंग-सुख में विलीन,
:स्थित निज स्वरूप में चिर-नवीन।
:वह शुद्ध, प्रबुद्ध, शुक्र, वह सम!
गुंजित अलि सा निर्जन अपार, मधुमय लगता घन-अन्धकार,