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:नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त
वह रे अनन्त का मुक्त-मीन अपने असंग-सुख में विलीन,
:स्थित निज स्वरूप में चिर-नवीन।
:निष्कम्प-शिखा-सा वह निरुपम, भेदता जगत-जीवन का तम,
:वह शुद्ध, प्रबुद्ध, शुक्र, वह सम!
गुंजित अलि सा निर्जन अपार, मधुमय लगता घन-अन्धकार,
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