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{{KKRachna
|रचनाकार=विजय कुमार पंत
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
घंटियाँ
कभी
मेरे मन में तो
नहीं
गूंजी !
न ही कभी
आत्मा में श्रद्धा
उपजी !
कभी पैर भी
मदहोश
हो कर चुपचाप
यहाँ तक
नहीं आये
कभी ना तो शीश
नतमस्तक हुआ
न ही मैंने
प्रेममय अश्रुपूरित
सुमन चढ़ाए
अब शायद समय
आया है
तुम भी पहचान लो ,
मैं भी जान लूं
ठीक नहीं है
कि किसी के कहने भर से
ये मंदिर है
ऐसा मान लूं .....
</poem>
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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
}}
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घंटियाँ
कभी
मेरे मन में तो
नहीं
गूंजी !
न ही कभी
आत्मा में श्रद्धा
उपजी !
कभी पैर भी
मदहोश
हो कर चुपचाप
यहाँ तक
नहीं आये
कभी ना तो शीश
नतमस्तक हुआ
न ही मैंने
प्रेममय अश्रुपूरित
सुमन चढ़ाए
अब शायद समय
आया है
तुम भी पहचान लो ,
मैं भी जान लूं
ठीक नहीं है
कि किसी के कहने भर से
ये मंदिर है
ऐसा मान लूं .....
</poem>