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(रवीन्द्रनाथ के प्रति)आज कुसुम कुम्हलाये कल ही तो मैंने इनसे थे अपने केश सजाये मेरे फूल न तुम कुम्हलानाप्रिय! पतझर में भी मुस्कानाखिलना, बस खिलते ही जाना, जग से आँख चुरायेदेख न सके तुम्हें मधुबालापी न सको अधरों की हाला सौरभ बन पथ में उड़ जाना, कोई जान न पायेपी चम्पक-कपोल-मधु जी भर झूम अलक में, पलक चूमकरबन जाना अधरों में मर्मर, जब प्रेयसी लजायेछू रज-कण प्रिय-पथ का प्याराचरणों का बन जाय सहारायुग-युग तक संगीत तुम्हारा, मिलन रागिनी गाये आज कुसुम कुम्हलाये
किसे पुकार रहा तू माँझी! धूमिल संध्या-वेला में
सागर का है तीर, खडा हूँ संगीहीन अकेला, मैं
डूब चुका रवि अरुण, थकी लहरें, उदास है सांध्य-पवन
तारक-मणियों से ज्योतित नीलम-परियों के राजभवन
मधुवन पीछे लहराता है शांत मरुस्थल के उर में
आगे तरल जलधि-प्रांगण रोता विषाद-पूरित सुर में
. . .
शिथिल बाँह, पग काँप रहे, कंठ-स्वर रुँधने को आया
झुकी कमर, जड़-काष्ट उँगलियाँ, जीर्ण त्वचा, जर्जर काया
समझा, जीवन की संध्या में आज पुकार रहा किसको
कौन तरुण वह, सौंप चला जायेगा यह नौका जिसको
आ जा माँझी! छाया-सा चुपचाप उतर निर्जन तट पर
इन लहरों से मैं खेलूँगा अब तेरी नौका लेकर
1941
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